Monday, October 3, 2011

कमर तोड़ती महंगाई

कमर तोड़ती महंगाई
अपने पथ पर नए नए आयाम जोडती महंगाई,
चल पड़ी है अच्छे अच्छों की भी कमर तोड़ती महंगाई |

रसोई में अम्मा रोती है सब्जी आज बनाऊं क्या,
झुंझला उठते हैं अब बाबा रोज़ रोज़ मैं लाऊं क्या |

सब्जी मंडी लाल है जैसे, आटे दाल भी महंगे हैं ,
महंगी है गैस रसोई की, और महंगे नेकर, लहंगे हैं |

बिजली महंगी, दूध है महंगा, महंगा अब तो पानी है,
चांदी महंगी , सोना महंगा, महंगी प्रेम निशानी है |

वाहन पर चलने से पहले अपना जेब टटोलते हैं,
चाय की प्याली लेने में भी जैसे ह्रदय डोलते हैं |

माथे पर बल पड़ते हैं बच्चों की फीस चुकाने में,
सारा वेतन जाता है अब पुस्तक बस्ता लाने में |

आम आदमी के जीवन का, जैसे हर पल महंगा है,
आज है महंगा अब है महंगा और फिर कल भी महंगा है |

सुबह से लेकर शाम तलक, जो भी कमाई होती है,
एक दिवस की मुश्किल से, उससे भरपाई होती है |

सारे सपने महंगाई की मार में दबकर चूर हुए,
टूटे फूटे सपनों के संग, जीने को मजबूर हुए

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