* दो गज ज़मीन और खुला आसमान *
एक आम आदमी
कुछ टूटे फूटे सपने लिए,
अपने घर से निकलता है.
यह सोचकर,
शायद कहीं उसे
अपने ख्वाबों की मंजिल मिले
गर्मियों की तेज़ धूप में
तन से बहता पसीना देख ,
सोचता है पेड़ की ठंडी छाँव में
कुछ शीतलता का अनुभव किया जाये
रुकता है पर
ख्याल आता है
मंजिल अभी दूर है
रुकना उचित नहीं.
फिर चल पड़ता है
जाड़ों की रुत
तन को कपाती है,
बारिश की बुँदे
चेहरे पर करती हैं प्रहार
फिर भी नहीं रोकता वह अपने कदम
बस चलता जाता है
उम्मीद के नए सबेरे की तलाश में.
चलते चलते बाल सफ़ेद हो जाते है
चेहरे पर झुर्रियां आ जाती हैं
और एक दिन जब देखता है तो
उसे नशीब क्या होता है
दो गज ज़मीन
और खुला आसमान
और फिर हँसता है
कहता है
वाह रे मालिक
सिर्फ इसके लिए
इंसान इतनी लम्बी यात्रा करता है.
No comments:
Post a Comment