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Monday, October 3, 2011
मुसाफिर: राहों से मंजिल तक का सफ़र |
मुसाफिर: राहों से मंजिल तक का सफ़र |
घर से निकला एक मुसाफिर ,
दूर चला कुछ और गया गिर,
फिर भी उठकर चला बावला
रुकता है वह कहाँ पे आखिर|
दूर अभी है उसकी मंजिल,
राहें उसकी बड़ी हैं मुश्किल,
हर हाल में उसको चलते जाना ,
करना है मंजिल को हासिल |
पत्थर कोई राह में आया,
दी ठोकर और उसे गिराया,
काँटों ने तो ज़ख्म दिए ही
फूलों ने भी उसे सताया |
कोई नहीं है उसका साथी,
ये दूल्हा है बिन बाराती,
अपनी मंजिल चला है पाने,
जो इसकी दुल्हन कहलाती |
उसका देखा ऐसे गिरना,
और अचानक उसे संभलना,
अपनी मंजिल की राहों पर,
गिरना उठाना आगे बढ़ना |
मै रह सका न यह पूछे बिन,
क्यों चलता है तू यूँ रात दिन,
दिन क्यों जीये ऐसे चलकर,
रातें क्यों काटे तारे गिन |
क्यों सर्दी में रहे ठिठुरता,
क्यों गर्मी में रहता तपता,
अपनी मंजिल की धुन में यूँ,
क्यों बारिश में रहे भीगता |
मेरे प्रश्नों को वह सुनकर,
बोला मन ही मन कुछ गुनकर,
सच करना है उनको भाई,
जो रखे हैं मैंने सपने बुनकर |
सर्दी गर्मी धुप छाँव ये,
मेरे लिए क्या नगर गाँव ये,
अपने साहिल पर जाऊंगा,
ले जाएगी समय नाव ये |
दूर अभी है मंजिल मेरी,
लग जाये कितनी ही देरी,
चाहे सुख की सुबह संग हो,
या फिर दुःख की रात अँधेरी |
सदा चलूँगा यूँ ही तन्हा,
कष्ट मिलेंगे हर एक लम्हा,
नहीं रुकूँगा कभी मैं भाई,
लव पर ख़ुशी हो आँखे नाम या |
इतना यकीं है मुझको सारंग,
मेहनत लाएगी मेरी रंग,
अपनी मेहनत से मंजिल पा,
कर दूंगा एक दिन सबको दंग |
दिन पश्चात् शाम आती है,
शाम अँधेरी रात लाती है,
उस अंधियारी रात बाद ही,
सुबह की शुरुआत आती है |
समय चक्र है चलता रहता,
हर पल रूप बदलता रहता,
मंजिल निश्चित पाता है वह,
जो अपनी राहों पर चलता रहता |
बोल रहा था वही मुसाफिर,
मैं सुन रहा था ध्यान लगाकर,
वीर वही है इस दुनिया में,
संभल जाये जो ठोकर खाकर |
पत्थर कर पायें क्या उसका,
पर्वत भी दे जाएँ रास्ता ,
राहें खुद बनती हैं सारथी,
जिसके मन विश्वास है पलता |
अभी अगर ये बुरा समय है,
फिर भी मन मेरा निर्भय है,
बस मन ये विश्वास लिए हूँ,
इक दिन होनी मेरी जय है |
हार कभी न मै मानूंगा,
इस पथ पर चलता जाऊंगा,
आत्म विश्वास के बलबूते पर,
निश्चित मंजिल मैं पाउँगा |
गर इक छोटी सी ठोकर से,
रुक जाऊं ज़ख्मों के डर से,
पा न सकूँगा कभी भी मंजिल,
मोह रखूं जो अपने घर से |
ये दुनिया तो बहुत बड़ी है,
ज़ख्मो के कांटे लिए खड़ी है,
पर गुलाब की तरह है ये,
काँटों संग ही पुष्प लड़ी है |
लोगों ने मुझको बहकाया,
परिवार का मोह दिखाया,
बोले कष्ट न सह पायेगी,
इन राहों पर तेरी काया |
मैंने बात सुनी हर जन की,
परवाह न की कोई उलझन की,
कदम उठाया इन राहों पर,
सुनकर बस आवाजें मन की |
चला हूँ अपनी मंजिल पाने,
कमज़ोर ज़माने को दिखलाने,
मुझको बहकाने वाले ये,
मेरी भी हस्ति पहचाने |
आगे बोला सुनो सुहानी,
महाभारत की इक कहानी,
मैंने जिसको कभी पढ़ा और,
पढ़कर लक्ष्य की महिमा जानी |
गुरु द्रोण देते थे शिक्षा,
इक दिन में आई इच्छा ,
क्यों न आयोजित कर लें वो,
अपने शिष्यों की एक परीक्षा |
एक तोते का खिलौना लाकर,
वृक्ष डाल पर उसे बिठाकर ,
सब शिष्यों को पास बुलाया,
और कहा उनको समझाकर |
शुक नेत्र को लक्ष्य बनाना,
और ज़मीन पर उसे गिराना,
पर अनुमति न दूँ मै जब तक,
कोई भी न तीर चलाना |
तैयार हुए सब लेके चाप सर,
तब गुरुवर बोले मुस्काकर,
जो कुछ सबको पड़े दिखाई,
कहो यहाँ पर इक इक आकर |
सबसे पहले आये युधिष्ठर,
बोले गुरु को शीश नवाकर,
दीखते है मुझको शुक, चाप, सर
वृक्ष बन्धु और आप गुरुवर|
बोला गुरु ना बाण चलाओ,
अपने स्थान पर वापस जाओ,
अगले शिष्य तुम सामने आओ,
आकर जो पूछा वो बताओ |
दुर्योधन ,भीम नकुल सब आये,
आकर सबने हाल सुनाये,
लेकिन किसी की भी बातें सुन,
गुरुदेव जी ना हर्षाये |
अंत में अर्जुन सामने आकर,
बोला अपना शीश झुकाकर ,
मुझको जो देता है दिखाई,
वो है शुक नेत्र बस गुरुवर |
अर्जुन से हर्षित हो गुरुवर,
बोले अर्जुन छोडो तुम सर,
अर्जुन ने ज्यों ही तीर चलाया,
तोता गिरा ज़मीं पर आकर |
लक्ष्य हो जिसका अर्जुन जैसा,
फिर बोलो उसको भय कैसा,
हार कभी ना उसकी होती,
है हर लक्ष्य उसे जय जैसा |
आगे कहता गया मुसाफिर,
खाई मैंने कितनी ठोकर,
फिर भी विश्वास लिए चलता हूँ,
लौटूंगा मंजिल का होकर |
मैंने कहा तू चलता जा रे,
तेरे संग है मेरी दुआ रे,
इक दिन इन राहों पर चलते,
तू तो अपनी मंजिल पा रे |
अब उसने ली मुझसे बिदाई,
आगे को बढ़ चला वो राही,
कुछ ही दूर चला बेचारा,
फिर से कोई ठोकर खाई |
पर फिर भी ना हिम्मत हारी,
फिर से लगा दी शक्ति सारी,
आखिर अंत में चलते चलते,
तय कर ली उसने राहें सारी |
पाई उसने सुबह की लाली,
आई जीवन में खुशहाली,
कुछ ही लम्हों बाद सुना ये ,
उस राही ने मंजिल पाली |
गर पाना है सच में मंजिल,
तो फिर करो ना लक्ष्य को ओझल,
आशा की सारी कलियों को ,
विश्वास का तुम देते जाओ जल
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